जीवन शाला
…………………… जीवन शाला
ताः२१-९-१९७५ …………प्रदीप ब्रह्मभट्ट
बचपन खेला अपनोंके बीच
… ये है अपने जीवनकी रीत
क्या कुछ कर पायेगे हम,
.. ………………. जबतक हमको ग्यान नहीं
छोड के हम बेगानापन,
….. सोचे हम जीवनका कल्याण
तब पढनेकी हुइ तमन्ना मनमें
……………… … खेलेंगे हम जीवनका संग्राम
आये है हम अपनी खातीर,
विध्यालयमें विद्वानोकी चलके
अमर भावना पुरी करेंगे
…………….. हम अपने गुरुजनोकी वानीको
कैसे भुलेगे हम उनको,
………………. जीनसे दीखाइ जीनेकीराह हमे
‘परदीप’ बनके हम जीवनमें
………………. करके जीवनशाला का सन्मान.
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